Saturday 23 March 2024

दिल्ली की खबरें और भाईचारावाद

"चुनाव के जब दो दिन रह गए तो दोनों ओर से काफ़ी सरंजाम दिखायी दिए। लोगों ने चीख-चीखकर इन्कलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगाए, एक-दूसरे की माँ-बहिनों में दिलचस्पी दिखानेवाली बातें कहीं, अपनी-अपनी लाठियों में तेल लगाया, भाले-बल्लमों को चमकाकर उन्हें लाठियों में फिट किया और जान हथेली पर रखकर उसी हथेली में गाँजे की चिलम पकड़ ली।"

- राग दरबारी, श्री लाल शुक्ल


(चित्र- देश दुनिया को बदलने के उद्देश्य से चुनाव में ढपली बजाते JNU के विद्यार्थी ) 

शुक्ल जी की कालजयी कृति में चुनाव का जो विवरण मिलता है, वो अपने आप में एक जीवंत चित्र है, भारत के राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और भारतीयों के मानसिक ढांचे का।  चूँकि अब देश में अठारवी लोकसभा का चुनाव आ रहा है तो हमें इस समय कुछ देश के मुद्दों पर चर्चा जरूर करनी चाहिए।  

लेखक आपको पहले ही बता देना चाहता है कि उसका उद्देश्य आपके मताधिकार के प्रयोग में किसी भी तरह से बदलाव लाना नहीं है। हम मात्र कुछ घटनाओं को देखने का प्रयत्न करेंगे। 

अब चूंकि पहला मामला इतना जरूरी नहीं है तो हम सीधे दूसरे मामले से शुरू करते है।

दूसरा मामला ये सुनने को आया कि राष्ट्रीय "फूल" बेचने और अंग्रेजी वाला फूल बनाने वाली एक कंपनी को सड़के, कम्प्यूटर, स्टील आदि आदि बनाने वाली बहुत सी कम्पनियो ने बहुत सारा पैसा दिया है। बात का पता तब चला जब दिल्ली में ब्लू लाइन पे स्थित एक मेट्रो स्टेशन के नाम वाले कोर्ट में काला कोट पहनकर बैठने वाले पांचो ने "लंच ब्रेक" में व्यस्त रहने वाली एक संस्था से एक रैपिड फायर राउंड खेला। 

पंच - "मिस्टेक माने?"

संस्था -"भूल"

पंच - "ठन्डे को अंग्रेजी में कहते है?

संस्था - " कूल"

पंच - "ये बाते सारी?"

संस्था- "उल जुलूल"

पंच - " सबसे महंगा? "

संस्था - " फूल ?" अरे , नहीं नहीं पेट्रोल...

बस इतने में वहां मौजूद नारद मुनि के वंशजो ने हाथो हाथ पुरे देश में आग कि तरह ये बात फैला दी कि फूल वाला फ़क़ीर नहीं बहुत पैसे वाला है। मेरे एक साथी ने कहा कि ये तो झूठ है, इतने पैसे तो होते ही नहीं है। लेकिन हंगामा बहुत हो रहा। अल्हड संत भूरमल जी झोलेश्वर ने सत्य ही कहा था, किसी को किसी की तरक्की हजम नहीं होती।  उसी दिन मैंने ठान लिया था कि सबको यहीं बताऊंगा कि मेरे SBI अकाउंट में तो पंद्रह सौ सैतालिस से ज्यादा एक पैसा नहीं है, जो कि एकदम सच ही है। अर्थात हमने तरक्की की ही नहीं, किसी का हाजमा क्यों ख़राब करना भला।

खैर, इस बात पर खाली "हाथ" वाले लोगों ने बहुत हंगामा किया। उनकी शक्ल से लग रहा था कि बहुत गरम हो रहे है, इसीलिए "तुम कमाओ, हम खाओ" जैसे समाजवादी विचारो से प्रेरित निकास, अर्थात आयकर विभाग ने उनका बटुआ फ्रीज़ में रख दिया। अब वो खाली हाथ मसलते रह गए । सूत्र ये भी बता रहे है कि आने वाले मेले में उनके युवा हामिद को बहुत सरे खिलोने लेने थे, लेकिन लग रहा है अब वो अपनी बूढी अम्मा के लिए चिमटे के आलावा कुछ और नहीं ले पाएंगे। शायद इसी बहाने प्रेमचंद की आत्मा शांति मिल जाए। 

नारद मुनि के वंशज अर्थात कुछेक अख़बार वाले रात दिन इस बात से परेशान रहते है कि धर्म जातिवाद के कीचड़ में लिपटे मैले, भ्रष्ट और गुंडागर्दी वाले सारे लोग आकर फूल वालों के साथ मिल रहे है । इससे आने वाले मेले में फूल वालों की दूकान ज्यादा चलेगी, लेकिन कुछ लोगों का यह मानना है की इतने तेजस्वी लोगों के लिए एक एकदम उचित स्थान फूल बागानी का धंधा ही है। दाग लगे तो आप कह सकते हो कि फूलों की क्यारिओं को सँभालते लग गया, कोई अज्ञानी या धर्म विरुद्ध बोलें तो आप फूल लेकर मंदिर जा सकते हो। और अगर कोई आपके कहे अनुसार गानो पर ताक धिन्न ना करें तो उन्हें अंग्रेजी वाले "ED शरीन" के गाने सुनने पर मजबूर कर सकते हो। 

एकदम तजा समाचार तो ये है कि देश के सबसे बड़े "झाड़ूवाले" को हाल ही में तिहाड़ जेल भेज दिया गया है , बताया जा रहा है कि जेल प्रशासन जेल के अंदर साफ़ सफाई को लेकर काफी चिंतित थे। अतः उपाय ये निकला गया कि झाड़ू के राष्ट्रीय प्रमुख को ही बुला दिया जाए । आखिर देश हमारा है, जेलें हमारी है, जेल के अंदर बैठे लोग हमारे है तो किस बात कि दिक्कत..? 

दूसरी तरफ वामपंथियों के गढ़ माने जाने वाले JNU  में भी हाल ही में चुनाव की ख़बरें जोरो पर है। ये आर्टिकल लिखे जाने तक चुनाव के मतों की गणना नहीं हुई थी, इसलिए उसके बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा। लेकिन देश की ही दूसरी प्रसिद्द यूनिवर्सिटी, अर्थात डेल्ही यूनिवर्सिटी के युवाओ के कुछ विचारो को हमने हाल ही सुना। विचार ओजस्वी और तेजस्वी थे। 

उन्होंने बताया कि उनका ग्रेजुएशन से कोई लेना देना नहीं है, क्युकी वो तो BA में पढ़ते है। वो JNU चुनाव के दौरान, भाईचारे के खातिर JNU  आए थे। JNU जैसे नॉन-socialisation वाली जगह को DU कि तरह डेमोक्रेटिक होने में बहुत समय लगेगा । भाईचारावाद जोर शोर से उनकी आंखों और WhatsApp स्टेटस पर झलक रहा था।

भाईचारावाद देश कि प्रमुख राजनितिक विचारधाराओ में से एक है। इस विचारधारा की शक्ति इस बात में निहित है कि अगर दो बहने भी आपस में सहयोग करती है तो उसे भी भाईचारा ही बोला जाता है। DU के एक मेधावी छात्र ने इस विचारधारा को समझाते हुए बताया कि "बड़े भाई ने जो कहा है उसका फुल सपोर्ट है।" भले ही वो बात उसको पता ही नहीं क्या है । 

भाईचारावाद धर्म, जाति, राज्य को नहीं देखता (कभी कभी देख भी लेता है, ऐसा कोई एकदम मना नहीं है, मतलब liberal attitude है), देखता है तो सिर्फ बौद्धिक स्तर । अगर आपके मानसिक विकास का स्तर उनके मानसिक विकास के आस पास ही विचरण करता हो और आपके दिमागी घोड़ा कभी उनसे आगे ना जाए सके, तो आप निच्शित ही भाईचारावाद के कर्मठ सैनिक बन सकते है। 

जहाँ एक तरफ JNU के चुनावों में वामपंथी ढपली बजाकर, पर्चे छापकर, वाद विवाद करके अपना चुनाव आयोजित करवाते है, वहीँ, DU के चुनावो में भाईचारवाद और पैसावाद मुख्य भूमिका निभाता है। DU से पढ़कर आए मित्रो ने बताया कि भाईचारवादी लोग चुनावों में शुक्ल जी के शुरुआत वाले वर्णन को तो चरितार्थ को करते ही है, इसके अलावा महिला सशक्तिकरण के हेतु भी कदम उठाते है। इसी कड़ी में वो महिला मतदाताओं के लिए कभी सिनेमा, कभी इटालियन तीखा घेवर अर्थात पिज्जा और फ्री दवा दारु का इंतजाम करते है। 

अब चूंकि देश को चुनाव करना है तो जाहिर सी बात है DU के भाईचारा वादी मॉडल को भी कुछ जगह मिले। इस मॉडल में देश की तरक्की है, जीडीपी ग्रोथ है, फूलों की सजावट है, हवाई जहाज में उड़ती फकीरी है, गांजे की चिलम से आया अल्हड़पन है और न जाने क्या क्या है। और सबसे ऊपर भाईचारे का atitude है।

याद रखिए, DU के एक उभरते युवा नेता के टीशर्ट पे लिखा था  "Education is important, but attitude is importanter".


धन्यवाद

- D Ram

नोट- ये लेखक की निजी टिप्पणी और मौलिक विचार है (शायद)।

Faith, Desperation and Tragedy.

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