साधो ये मुरदों का गांव!
पीर मरे, पैगम्बर मरि हैं,
मरि हैं ज़िन्दा जोगी,
राजा मरि हैं, परजा मरि हैं,
मरि हैं बैद और रोगी।
साधो ये मुरदों का गांव!
अक्सर कबीर साहब की ये पंक्तियाँ सुनता हूँ। कबीर साहब की सहज सरल और अक्सर उलटबासी में लिखी बाते सनातन है, जब तक मानव जीवन है, तब तक कबीर कही बाते उतनी ही प्रासंगिक और सत्य रहेगी जितनी ब्रह्माण्ड को चलने वाली प्रक्रियाएं ।
(Kabir- photo credits- ajabshahar.com )
अब जरा इन बातो के इतर बात करते है, कबीर साहब की बातो में तो मौत इस शरीर की होती है, और उन सभी की जो शरीर की प्रक्रियाओं से बनते है, अर्थात भौतिक निर्माण तो भौतिक रूप का अंत भी। कृष्ण भी अर्जुन को जब गीता में युद्ध के लिए तैयार कर रहे होते है तो इसी भौतिक नियम को याद दिलाते है। बिग बैंग थ्योरी अर्थात पुरे ब्रह्माण्ड के निर्माण में शुरू से आज तक कुछ भी नया आया ही नहीं है, बस वही अणु कण है जो रूप बदलते रहते है। जो कल तक जीवन की शुरुआत में एक कोशिका वाला जीव था, जो कल तक मछली, फिर कच्छप और फिर जंगल में घूमता डायनासौर था, वही आज शायद यह लेख पढ़ रहा है। ये सिर्फ रूप का बदलाव है, जो अणु कण शुरू में थे, वही अणु कण आज भी है, तो मरा कौन ? जैसे पानी को ताप मिला तो भाप हो गया और शीत मिला तो बर्फ हो गया, तो फिर पानी का अस्तित्व तो अब भी बना हुआ है।
पानी तब भी जिन्दा है जब उसे पी लिया जाता है, क्युकी तब पानी का रूप कुछ और बन जाता है । इसलिए अर्जुन जैसे योद्धा को प्रकृति के नियम से समाप्त होने वाले शरीर के अंत का दुःख तो होना ही नहीं चाहिए । तुम इसे बचाओगे तब भी इसका अंत तो होना ही है, तुम मरोगे तब भी इसका अंत होना ही है ।
शायद इसी बात को कबीर कहते है कि -
चंदा मरि है, सूरज मरि है,
मरि हैं धरणी आकासा,
चौदह भुवन के चौधरी मरि हैं
इन्हूँ की का आसा।
साधो ये मुरदों का गांव!
लेकिन हमने जोड़ दिया बहुत सारा साहित्य जीवन से, जीवन के उन सब पहलुओं से जो शायद बेहद क्षणिक है। लेकिन ऐसा किया जाना स्वाभाविक भी था, क्युकी जो है वो यही है, यहीं पर है जिसे जिया जा सकता है, जिसे जिया जाना चाहिए ।
आप जिन कीट-पतंगों को आस पास देखते है, उनका जन्म तो इस धरती पर चालीस से अड़तालीस करोड़ साल पहले हो गया था, लेकिन एक कीट-पतंगे की उम्र मात्र कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनों की ही हो सकती है, वो अपना जीवन इतना लम्बा प्लान नहीं कर सकता कि पच्चीस तक पढाई, सत्ताईस में शादी तीन में संतान और साठ में रिटायर, ये सब आदमी ही करता है। लेकिन उसकी नजर में तो उसका जीवन ही पूर्ण है, उसी में उसको भोजन, सेक्स और बाकि जरूरते पूरी करते हुए।
कीट-पतंगे से आप जैसे बड़े और समझदार आदमी कि तुलना करने कि गुस्ताखी करने के लिए क्षमा चाहता हूँ, लेकिन मूल तौर पर बहुत भेद है नहीं, बस ऊपरी ऊपरी जामा है जिसको आप और मै अपने मद - मोह में राजी होने के लिए पहने रहते है । जैसे वो किट कुछ घंटो में अपना पूरा जीवन जी लेता है, जो आप सौ साल में जीते है, और अगर इस जीवन में हम भी वही कुछ कर रहे है, खाना पीना, बच्चे पैदा कर देना, बुड्ढे होना, व्हाट्सप्प स्टेटस लगा देना और मर जाना, तो कहने को तो बहुत कुछ किया आपने, पर क्या सच में बहुत कुछ कर दिया आपने ??
क्योंकि बहुत ताम झाम और ठाट बाट के बाद भी तो वही हो रहा जो होना है -
नौहूँ मरि हैं, दसहुँ मरि हैं,
मरि हैं सहज अठ्ठासी,
तैंतीस कोटि देव मरि हैं,
बड़ी काल की बाज़ी।
साधो ये मुरदों का गांव!
अब आप कीट-पतंगे तो है नहीं, आदमी है । आदमी होना, इंसान होना बेहद बड़ी बात है, लेकिन इंसान बने रहना, खुद को उस किट-पतंगे से अलग और आगे का जीव समझना मात्र इससे तो नहीं मिलेगा कि आपके पूर्वजों ने कुछ लाख साल पहले अफ्रीका से निकल कर आज दुनिया भर के जंगल ख़तम कर रहे है । आप कीट-पतंगों से बस इसलिए तो अगल नहीं हो जाएंगे कि आपके हाथ में बड़ा फ़ोन, आपकी चमड़ी थोड़ी सफ़ेद और आपकी गाड़ी की लम्बाई आपके पडोसी से थोड़ी ज्यादा है।
जिन्दा रहने के लिए सारे प्रपंच, सारे रीती रिवाज, सारे कर्म धर्म भले ही हमें बहुत ज़रूरी लग रहे हो, आखिर जीवन की सीमा के भीतर ही रह जाते है। और जो कुछ जीवन के भीतर ही रह जाता है, वो एक जीवन को मौलिक तौर पर दूजे जीवन से अलग लग भले रहा हो, बहुत अलग हो नहीं सकता ।
पर कबीर साहब जैसे लोग, जिन्होंने ज्यों की त्यों धर दिनी चदरिया, जरूर वहां तक पहुंच गए थे, जहा आदमी होना सच में कीट-पतंगा होने से बेहतर था, और संभवतः इसलिए कबीर भटक कर नहीं मरे -
नाम अनाम अनंत रहत है,
दूजा तत्व न होइ,
कहे कबीर सुनो भाई साधो
भटक मरो मत कोई।
अष्टावक्र शायद कबीर जैसे लोगो के लिए ही कह गए है कि दुर्लभ और धन्य है वह, जिसकी जीने की, भोगने की और जानने की इच्छा मनुष्यों के तरीकों को देखकर बुझ गई है।
धन्यवाद्
- डूंगर
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