पिताजी लगभग साढ़े सात दशक का जीवन देख चुके है।गांव के अल्हड आदमी है, जीवन यात्रा काफी काँटों और पत्थरो से भरी रही होगी। चलने के लिए उन्होंने हमेशा गाँव के पास के एक मोची के हाथ से बने चमड़े के जूते पहने हैं। उन जूतों की अपनी एक अलग ही पहचान है। सख़्त। भारी। खेत, काँटे, पत्थर, बारिश और समय सब कुछ ऐसे झेल जाते थे जैसे पापा ने झेल लिए घाव सारी उम्र भर के, उफ़ किये बिना ही।
उन जूतों की डिज़ाइन में आराम कभी हिस्सा ही नहीं रहा।एक बार पिताजी ने शौक से मुझे भी वैसे ही जूते दिलवा दिए, वे जूते पहनकर शहर चला गया था, तो कई दिनों का घाव दे बैठा पैरो को ।
हर बार जब उनका नया जूता आता, तो उसके साथ पैरो में ज़ख़्म भी आते। छाले पड़ जाना, थोड़ा घाव हो जाना, और सालों तक ऐसा होते रहने के बाद उन्होंने मान ही लिया की घाव तो जूते पहनने की प्रक्रिया का हिस्सा ही है । कभी प्रश्न ही नहीं किया।
कुछ दिन पहले जब मैं उनके नाख़ून काट रहा था, तो देखा कि उनके पैर उन जूतों के आकार में ढल चुके थे। त्वचा मोटी हो गई थी। जगह-जगह निशान, गड्ढे, सख़्त लकीरें। उनके पैर, उनका शरीर दर्द का आदी हो चुका था एकदम अनुशासन के साथ।
पापा हमेशा मानते रहे कि ऐसे जूते ही उनके लिए बने हैं। स्पोर्ट्स शू दूसरों के लिए होते हैं। आरामदेह जूते बहुत महंगे होते हैं। सस्ते जूते ज़्यादा चलते नहीं। उन्हें ऐसे जूते चाहिए थे जो खेत में चल सकें, काँटों और साँप-बिच्छुओं से बचाएँ, बारिश झेल सकें और सालों बाद भी काम के रहें। ये जूते उनकी ज़िंदगी, उनके कपड़े, धोती, पगड़ी और उनकी व्यवहारिक सोच, सबके साथ फिट बैठते थे।
शहर आये तो एक दिन, हम ऐसे ही एक बाटा के शोरूम में चले गए। मैंने सेल्समैन से कहा, कुछ साधारण दिखने वाली जूतों की की जोड़ी दीजिए। देसी टाइप, आरामदेह, पापा के साइज का।
पापा को रंग अच्छा लगा। फिटिंग भी ठीक लगी। दाम बिलकुल नहीं अच्छा लगा। और यह नापसंदगी उन्होंने पूरे ज़ोर से जताई। ऊपर से यहाँ मोलभाव भी नहीं हो सकता था। न कोई भाव-ताव, न सौदेबाज़ी का रिवाज़। ऐसे कोई थोड़ी जूते खरीद सकता है । फिर भी हमने जूते ले ही लिए।
कुछ देर बाद उन्होंने बस इतना कहा “ये तो एकदम आराम देने वाले है, चलते टाइम लगता ही नहीं की पहने हुए है, एकदम मुलायम लग रहे है। न काटा, न दबाव पड़ा।
बस जूतों की एक जोड़ी बदली थी। उन ठेठ अड़ियल हाथ से बने जूतों की जगह मशीन से बने आरामदायक जूते आ गए।
तब लगा कि इन जूतों की तरह ही, पापा ने ज़िंदगी में बहुत-सी चीज़ें सिर्फ़ इसलिए ढोईं क्योंकि उन्हें लगा यही रिवाज है शायद जीवन जीने का। बोझ इसलिए नहीं उठाया कि बोझ उठाना ज़रूरी था, बल्कि इसलिए कि वो दर्द जाना-पहचाना लगा इसलिए नहीं कि उसका कोई अर्थ था,बल्कि इसलिए कि वह सस्ता लगा, टिकाऊ सा था और सबने बोला कि यही जूते तो आदमी पहनता है ।
वे बहुत-सी असहज चीज़ों को ठुकरा सकते थे। लेकिन शायद नहीं ठुकरा पाए, इसलिए नहीं कि उनके पास विकल्प नहीं थे, बल्कि इसलिए कि उन्हें लगा वे सहन कर तो सकते ही हैं। आदमी जात ऐसे छोटे मोठे घाव से थोड़ी डरता है, और इसलिए भी कि उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि कोई और जोड़ी भी हो सकती है, जो ज़्यादा ठीक बैठे, जो आराम दें ।
हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही चलते हैं। पुराने जूतों के आकार में ढले हुए पैरों के साथ। खुद को समझाते हुए कि आराम विलासिता है, दर्द ताक़त का सबूत है, और बेहतर विकल्प किसी और के लिए होते हैं।
ये तो समझ आ ही रहा कि थोड़ी कीमत ज्यादा हो सकती है, लेकिन जूते आरामदायक हो सकते है। और होने भी चाहिए, रास्ता लम्बा है बहुत।
आदमी को इतनी भी आदत ना हो सहने की,
दर्द रोज़ मिले, और शिकायत भी ना हो ।
D Ram

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