Wednesday, 13 November 2024

इक बगल में चाँद होगा इक बगल में रोटियां

पीयूष मिश्रा जी का लिखा हुआ ये गाना आपने शायद सुना होगा।  बहुत कम गाने होते है जो हमारी चलने वाली सांसो के खर्च को इतना सहजता और गहराई से गाते है। ये गाना चाँद का ख्वाब देखते हर उस आदमी से जुड़ा है, बस सबका चाँद अलग अलग है, सबके लिए चाँद के मायने अलग अलग है, और इसीलिए सबके लिए गाना अलग अलग जगह पर खत्म हो जाता है। 



Photo- किराए की छत पर चमकता चाँद । 


इससे पहले कि हम गाने के बोल को एक एक करके समझे हम पहले यह समझने की कोशिश कर लेते है कि चाँद क्या है, रोटी क्या है और भूख क्या है?


चाँद एक दूर चमकते, धरती से टूटकर अलग हुए टुकड़े के आगे भी बहुत है।  बचपन की कहानियों में और जवानी के किस्सों में चाँद अलग अलग किरदार बनता रहा है।इस गीत में प्रयोग हुआ चाँद मोटा मोटा हमारी पीढ़ी की भाषा में ख्वाब, dream  कहा जा सकता है । आपने जो अलग अलग फिल्मे देखी होगी उनमे भी हीरो वही होता है जो फिल्म के ख़त्म होने से पहले चाँद पा लेता है। 


अगर हम द्वैत - अद्वैत की और मुड़े तो शायद चाँद आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक होगा। कबीर को ये चाँद भीतर ही मिल गया था, मीरा को कृष्ण की दीवानगी में, अक्का महादेवी को शिव के प्रति पूर्ण समर्पण में और दूसरे कई संतो का अपने रोटी की भूख से परे चले जाने पर जो मिला था, उसको भी इस गीत के चाँद की तरह देख सकते है ।   


"इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ

इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ"


अब एक बगल में तो अपना चाँद है ही, दूसरे बगल की रोटियां क्या है? सीधे सीधे तो रोटियां पोषण की ज़रूरत का साधन है।  लेकिन यहाँ रोटियां सिर्फ वो रोटियां नहीं है जो शरीर की भूख मिटा देती है।  रोटियां वो भी है जो इतनी सारी अलग अलग किस्म की भूख पैदा कर देती है। भूख जिन्दा रहने की, भूख अच्छा दिखने की, भूख दिवार पे टांगने के लिए कागज की एक उपाधि लेने की, भूख अपने पास वाले से ज्यादा बड़ी गाड़ी, घर और साधन जुटाने की, भूख अपने आस पास के दूसरे भूखे लोगो से ज्यादा भूखे दिखने की। 


और ये सारी अलग अलग किस्म की भूख हम खुद नहीं लगते, ये तोहफा होती है आपके आस पास के उन सभी लोगो का जो खुद कभी चाँद ठीक से देख नहीं पाए, रोटियां जुटाने में लगे रहे। इतनी रोटियां जुटा ली कि कभी भूख ही ना मिटा पाए।  और उन्होंने मिलकर यह तय किया कि आने वाले हर आदमी की भूख रोटी से आगे ना जाए, वो कहीं दूसरी मुड़कर चाँद को न देख लें।  


और फिर पुरा ढांचा बनाया गया आदमी को जिंदगी भर यह मानने के लिए मजबूर करने को कि उसको लगे ..


"इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ

हम चाँद पे...

हम चाँद पे रोटी की चादर डालकर सो जाएँगे" 


कि आदमी को लगे कि उसके जीने का सबसे बड़ा सार यही है कि उसने रोटी की चादर के नीचे चाँद छुपा दिया है । इसको साधारण भाषा में आपने अपने आस पास किसी को यह कहते हुए सुना होगा कि हमने को घर परिवार की खातिर अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया । इस रोटी की चादर इतनी भारी हो जाती है कि आदमी भूल ही जाता है कि एक चाँद भी था जिसको देखना था।  


शायद आपने धोनी पर बनी फिल्म देखी होगी, जब वो किरदार उस प्लेटफार्म पर बैठा खुद से पूछ रहा होता है कि रोटी की कीमत इतनी होनी चाहिए कि वो चाँद को ही भूल जाएं ? वो इस सवाल को बहुत गंभीर होकर पूछता है खुद से, वो इंकार कर देता है अपने चाँद को रोटी से ढकने को।  


लेकिन जो ऐसे सवाल खुद से नहीं पूछ नहीं पाते उनका क्या होता है?



"और नींद से...

और नींद से कह देंगे, "लोरी कल सुनाने आएँगे

और नींद से कह देंगे, "लोरी कल सुनाने आएँगे"


वो एक बच्चे की तरह हर रात खुद को बच्चे की तरह फुसला देते है कि आज सो जाओ, कल तुम्हे लोरी सुना  देंगे।  मैंने कहीं पढ़ा था कि आदमी जब अपनी मौत के बिस्तर पर बैठा होता है तो उसको किसी काम को करने के पछतावे से ज्यादा उन कामो का पछतावा होता है जो उसे करने थे, लेकिन रोटियों की जुगत में इतना लगा रहा कि कभी कर ही नहीं पाया । 


जब हम उन सारे ज़िंदादिली के पलों को यह कहकर आगे सरका देते है कि अभी तो वक़्त नहीं है, तो शायद हम खुद की नींद को फुसला रहे होते है कि आज आ जा, कल तुम्हे पक्का लोरी सुना  देंगे । 



"इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ

इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ

हम चाँद पे...

हम चाँद पे रोटी की चादर डालकर सो जाएँगे

और नींद से...

और नींद से कह देंगे, "लोरी कल सुनाने आएँगे"

और नींद से कह देंगे, "लोरी कल सुनाने आएँगे"


लेकिन कुछ तो मिलता ही होगा न रोटियां जुगाड़ते रहने से ?


हां….


"इक बगल में खनखनाती सीपियाँ हो जाएँगी

इक बगल में कुछ रुलाती सिसकियाँ हो जाएँगी"


जिस बगल में रोटियों की भूख लगी रहती है, उस बगल में सीपियाँ अर्थात कुछ सिक्के हो जाते है।  और जिस बगल में चाँद होना था, वहां सिसकियाँ हो जाती है।  सीधे सीधे समझें तो एक सीमा तक सिक्कों का जमा होना सुरक्षा तो देता है, लेकिन उसकी कीमत काफी ज्यादा होती है , चाँद के बदले रोटी लेना इतना सस्ता नहीं होता।  रोटी शायद ज़रूरी होती है, या जरुरी बना दी जाती है, या जरुरी लगती है इसका ठीक ठाक अंदाज़ लगाना मुश्किल होता है । जावेद अख्तर साब ने लिखा है कि "कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है, मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी ?"



फिर क्या कर लेंगे हम इन सीपियों से? 


"हम सीपियों में...

हम सीपियों में भर के सारे तारे छू के आएँगे

और सिसकियों को...

और सिसकियों को गुदगुदी कर-कर के यूँ बहलाएँगे

और सिसकियों को गुदगुदी कर-कर के यूँ बहलाएँगे"


अब जरुरी थोड़ी है कि सब चाँद ही लेकर आए, अगर सिक्कें काफी हो आपके पास तो उनमें बैठ कर चाँद नहीं तो तारों के बीच तो जा ही सकते हो। अरे कलेक्टर बनना कौनसा जरुरी है, बाबू- क्लर्क - चपरासी कुछ भी बन गए तो भी रहोगे तो सरकारी आदमी ही न ?  जो तुम तारे छू कर आओगे तो भूल ही जाओगे कि चाँद जैसा भी कुछ था।  बेटी को इतना दहेज़ देकर, बढ़िया घर बार में शादी करवा देंगे फिर क्या ही जरुरत है उसके नौकरी करने की? उसकी नौकरी से उसको मिल भी क्या जाना है? सीपियों की खनक इतनी तेज कर दो कि आदमी भूल ही जाए कि चाँद के ना होने से सिसकियाँ कितनी जोर से हो रही है ? 


इन सिसकियों को हम गुदगुदी करके बहला ही देंगे, जैसे बच्चा रो रहा हो और आप उसको गुदगुदी कर दो, वो इतना हसने लग जाता है कि उसे खुद याद नहीं रहता कि उसका कौनसा खास खिलौना टूट गया थ।  चाँद टूट गया था । 


फिर भी अगर सिसकियाँ बनी रही तो? क्युकी आज नहीं तो कल बच्चे को याद आएगा कि उसका एक खिलौना था जो नहीं टूटना चाहिए था।  रॉकस्टार फिल्म में जब जॉर्डन खटाणा भाई से कहता है कि मेरा दिल नहीं टूटना चाहिए खटाणा भाई, तो वो उसी बच्चे की तरह खुद को रोने से बचाना चाहता है ।  


फिर इस रोने धोने का अंत क्या है?


"अम्मा, तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा

कोई रोने आएगा

ग़म ना कर, जो आएगा वो फिर कभी ना जाएगा

वो फिर कभी ना जाएगा।"


यहाँ आकर पीयूष मिश्रा साहब परम सत्य को याद दिला देते है।  वही सास्वत सत्य जो हम सभी इतना ज्यादा सुन चुके है कि हमारे ध्यान से ही परे रहता है।  लेकिन जैसे ही हम इसे किसी और के साथ होता देखते है, हम बहुत ही आसानी से इस सत्य को हाथ जोड़ लेते है। वो सत्य है मृत्यु का । रोटियों के चक्कर में जो चाँद छूट गया है,  उससे जीवन भर सिसकियों पर एक कोई रोने आएगा । और वो ऐसा आएगा कि कभी नहीं जाएगा। सारी सिसकियाँ शांत हो जाती है, सारी रोटियां काम की नहीं रहती कुछ भी। 


या शायद इस सत्य का याद मात्र आ जाना काफी होता है सारी सिसकियों को शांत करने के लिए । एक बार जो जो सत्य को समझ चूका हो, उसके सामने सारी भूख खत्म हो जाती है । चाहे हो महाभारत का कर्ण हो, पहाड़ तोड़ता दशरथ मांझी हो, हीर राँझा जैसे प्रेमी हो या कई सालो तक दुनिया के परे रहकर खोज करता कोई वैज्ञानिक हो । ये अपने चाँद को पाने में इतने व्यस्त हो चुके है कि इनके पास सिसकियों कि जगह ही नहीं बची है । 


पेट की भूख आदमी ने खुद बनाई है, इसलिए प्रकति  के बनाये चाँद, तालाब, सागर, नदी आदि के आगे ये बहुत छोटी लगती है। आप पहाड़ो में जब जाते है तो आपको याद आता है आप इतने भी बड़े नहीं है जितना आप सोचते है । 


"याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी

लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी

याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी

लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी।"  


यहाँ आकर ये गीत सवाल कर देता है उन सभी बने बनाये विश्वासों पर पर जो कहते है कि यह होनी है और यह अनहोनी है । अर्थात Do's  एंड Dont's ।  जितनी सारे रोटियों और चाँद को हम इतना जरुरी बना लेते है, उससे भी ज्यादा बड़ा है यह सत्य जो सबसे बड़ी होनी है, अर्थात मृत्यु । 


लेकिन फिर भी आदमी तो आदमी है, वो कहता है, 


"होनी और अनहोनी की परवाह किसे है, मेरी जाँ?

हद से ज़्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएँगे"


लेकिन ठीक इसी बात पर आदमी कह देता है कि होनी और अनहोनी दोनों से ही परे है मेरी चाँद को पा लेने की कोशिश । इस कोशिश में मर जाना भी तो इतनी बड़ी कीमत नहीं है, अगर वो ही हद है तो ठीक है ।और यहाँ मर जाना शायद शरीर का मरना नहीं है, यह बात कर रहा है उन सभी रोटियों की भूख का मर जाना जो दुनियां ने कहा की आपको होनी चाहिए।  "जो ऐसा नहीं करे, वो तो मरे सामान है " ऐसा सुनकर भी कुछ होते है दीवाने जो निकल पड़ते है चाँद की खातिर। 


 ऐसी भाषा आप सुनते है युद्ध पर निकल चुके सैनिक योद्धा से, अकाल में भी पहाड़ तोड़ते दसरथ मांझी को भी उसका बाप यही कहता है, राजसी वैभव को त्याग भक्ति में लगी मीरा को भी ऐसा ही कुछ सुनना पड़ा था, और लेकिन उन सबका जबाव यही था, कि हद से ज़्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएँगे"।  


ऐसा करना शायद इसलिए जरुरी हो जाता है, क्युकी आदमी को ठीक से जीने के लिए भी, जिंदगी को ठीक से समझने के लिए भी, मौत को समझना पड़ता है। शायद इसी सिलसिले में फरहान अख्तर ने लिखा था कि "दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेके चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम"


और जो बस इतना सवाल कर देंगे वो ही आखिर में यह कह पाएंगे कि 


"हम मौत को...

हम मौत को सपना बता कर उठ खड़े होंगे यहीं

और होनी को...

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे"



तो देखिये, आप चाँद को देखेंगे या बगल में पड़ी रोटियों को संभालेंगे ? यह आप पर है । मैंने तो यह सब कहीं पढ़ा था, अलग अलग जगहों पर अलग अलग समय पर, लेकिन कभी कभी बहुत सी अलग अलग बातें बहुत सटीक तरीके से एक दूजे से जुड़ जाती हैं, और मै कोशिश कर देता हूँ उनको अपनी डायरी में लिख देने की और कभी कबार ऐसे ब्लॉग में लिख देने की । 


आप भी जरूर सोचियें, रोटियों से ज्यादा चाँद के बारे में। मजा आएग।  

 

Listen the song here - https://www.youtube.com/watch?v=67_CU8E9sdY



Note- The writer does not claim originality to this interpretation, it might have come from various sources, the writer only claims compilation of these different threads.


Till we meet again. 


D Ram 

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